उत्तर प्रदेश के मेरठ स्थित औघड़नाथ मंदिर में महाशिवरात्री के अवसर पर श्रद्धा और उत्साह के साथ पर श्रद्धालुओं ने भगवान शिव की आराधना की और रुद्राअभिषेक कर मंगल कामनाएं की । चारों दिशाओं में बोल बम और हर हर महादेव के नारों ने मेरठ को पूरी तरह से शिवमय कर दिया। बाबा औघड़नाथ मंदिर सहित अन्य देवालयों को भव्य तरीके से सजाया गया है। सोमवार से ही यहां मेले जैसा माहौल रहा। ऐसे में मंगलवार को महाशिवरात्रि के अवसर पर उत्साह के साथ परिवार सब लोगों ने भोलेनाथ का अभिषेक कर मंगल कामनाएं की । शहर से लेकर देहात तक हर हर महादेव और बोल बम से शिवालय गूंज उठे ।
औघड़नाथ मंदिर में दूर तक श्रद्धालुओं की कतारें लगी । सोमवार रात से ही मंदिर में अभिषेक शुरू हो गया। सुबह 5 बजे बाबा के शृंगार के बाद जो अभिषेक शुरू हुआ तो दिन भर श्रद्धालुओं की कतारें लगी रही।
सीसीटीवी कैमरों से होगी निगरानी : बाबा औघड़नाथ मंदिर में मंगलवार को सुबह चार बजे से जलाभिषेक शुरू हो गया। मंदिर समिति के अध्यक्ष डॉ. महेश बंसल और महामंत्री सतीश सिंघल ने बताया कि मंदिर के मुख्य द्वार पर रविवार रात ही गंगाजल के कैंटर पहुंच गए थे। औघड़नाथ मंदिर और शहर के प्राचीन बिल्वेश्वर महादेव मंदिर में पूरी सुरक्षा व्यवस्था के बीच शिवरात्रि पर्व मनाया जा रहा है। मंदिरों में भारी संख्या में पुलिस फोर्स तैनात किया गया है। छावनी क्षेत्र में मंदिर होना और काफी भीड़ होने के कारण मंदिर में विशेष सुरक्षा इंतजाम किए जाते हैं। औघड़नाथ मंदिर में अब तक हजारों की संख्या में कांवड़िये जलाभिषेक कर चुके हैं।
प्रथम प्रहर : शाम 6:21 से 9:27 बजे तक
द्वितीय प्रहर : रात 9:27 से 12:31 बजे तक
तृतीय प्रहर : रात 12:31 से सुबह अल सुबह 3:32 बजे तक
चतुर्थ प्रहर : अल सुबह 3:32 से 6:34 बजे तक
शिवरात्रि व्रत पारण समय : 2 मार्च को सुबह 5:34 से 6:02 बजे तक
जानिए बाबा औघड़नाथ मंदिर के बारे में
मेरठ कैंट स्थित यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। ब्रिटिश आर्मी में भारतीय सैनिकों को काली पल्टन कहा जाता था। इसी मंदिर के आसपास भारतीय सैनिक रहते थे। इसके चलते इस मंदिर को काली पल्टन मंदिर के नाम से पुकारा जाने लगा। कहा जाता है कि सन 1857 के दौर में काली पल्टन के सैनिक औघड़नाथ मंदिर परिसर के कुएं का पानी पीने आते थे। मंदिर के मुख्य पंडित ने प्रतिबंधित कारतूस (जिसमें गोवंश की चर्बी होने का आरोप था) के इस्तेमाल का विरोध किया था। इसके बाद भारतीय सैनिकों ने इन कारतूसों का प्रयोग करने से इन्कार कर दिया था। यहीं से प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की नींव पड़ी थी।